अनुशासन क्या है? अनुशास्यते नैन। अर्थात स्वयं का स्वयं पर शासन।

जवाहर लाल नेहरु ने कहा था, “अनुशासन
राष्ट्र का जीवन रक्त हैl “ सच पूछा जाये तो अनुशासन ही मानव सभ्यता की पहली सीढ़ी
है,जिसके सहारे हमारा क्रमिक विकास हुआ हैl पृथ्वी के समस्त कार्य, व्यापार किसी ना किसी नियम से बंधे हुए हैl
पृथ्वी रोज अपने नियम से अपनी धुरी पर घूमती हैl जाड़ा, गर्मी और बरसात एक निश्चित
क्रम व समय से आते हैंl जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन महत्वपूर्ण हैl पारिवारिक
व सामाजिक जीवन में कहीं अधिक अनुशासन की आवश्यकता होती हैl बिना दिशा के जीवन
दिशाहीन बन जाता हैl हम इतिहास और पुराण उठाकर देखें तो हमें इसके अनेक उदाहरण
मिल जायेंगे जहाँ अनुशासन से महत्वपूर्ण सफलताएं व उपलब्धियां हासिल की गयी हैंl
ये उपलब्धियां हमारे लिए हमेशा से प्रेरणा स्त्रोत बनीं हैंl आज जीवन में आपाधापी
बढ़ गयी हैl लोग कम समय में अधिक उपलब्धियाँ प्राप्त कर
लेना चाह रहे हैं और अनुशासन से परे होकर कार्य करने लग जाते हैंl जबकि यह एक कटु सत्य है कि अनुशासन के बिना
सफलता हासिल नहीं की जा सकती हैl जिस देश के नागरिक अनुशासित रहते हैं वहा की सेना
अनुशासित रहती है और वह देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसित होता रहता है l
अनुशासन का पहला पाठ हमें घर से मिलता हैl घर ही प्रथम पाठशाला होती हैl
अनुशासन का पाठ बचपन से परिवार में रहकर सीखा जाता है। विद्यालय जाकर अनुशासन
की भावना का विकास होता है। अच्छी शिक्षा विद्यार्थी को अनुशासन का पालन करना
सिखाती है। सच्चा अनुशासन ही मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर वास्तव में मानव बनता है। अनुशासन दो प्रकार का होता है एक वो जो हमें बाहरी समाज से मिलता है और दूसरा
वो जो हमारे अंदर खुद से उत्पन्न होता है। हालाँकि कई बार, हमें किसी प्रभावशाली
व्यक्ति से अपने स्व-अनुशासन आदतों में सुधार करने के लिये प्रेरणा की जरुरत होती है। सच्चा अनुशासन ही मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर वास्तव में
मानव बनता है। भय से अनुशासन का पालन करना सच्चा अनुशासन नहीं है और ना ही अनुशासन
पराधीनता है। यह सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकता है।
महात्मा गांधी ने कहा भी है, “हम दबाव से अनुशासन नहीं सीख सकतेl“
महात्मा गांधी ने कहा भी है, “हम दबाव से अनुशासन नहीं सीख सकतेl“
हमारा समाज दण्ड को
अनुशासन का पूरक मानता हैl अंग्रेजी भाषा में एक कहावत भी है Fear Commands
Obedience अर्थात भय बिनु होय ना
प्रीति और हमारे समाज में ऐसी ही अवधारणा भी रही हैl लेकिन आदर्शवादी दार्शनिकों
ने दण्ड को अनुचित बताया हैl उनके अनुसार अनुशासन को स्थापित करने के लिए बाहरी
नियंत्रण या शारीरिक अथवा मानसिक दण्ड की आवश्यकता नहीं हैl अनुशासन के लिए बालक में नम्रता, समर्पण,
आज्ञाकारिता, मानवीयता आदि नैतिक गुणों के विकास की आवश्यकता होती हैl इन गुणों के
विकास के बाद व्यक्ति आत्मानुशासित हो जाता हैl महान शिक्षाशास्त्री फ्रोएबेल
अनुशासन में दण्ड को कोई स्थान नहीं देते बल्कि सहानुभूति से काम लेकर व्यक्ति में आत्म-क्रिया और
आत्म-नियंत्रण को प्रोत्साहित करना अति आवश्यक मानते हैंl एक बार यह समझ लेने पर
वह स्वयं अनुशासित होने लगता हैl
परन्तु बाइबिल के अनुसार अनुशासन के कई पहलू हैं जैसे- मार्गदर्शन, हिदायत, प्रशिक्षण, ताड़ना, सुधार, यहाँ तक कि दंड। कुछ दार्शनिक व शिक्षाशास्त्री मानते हैं
कि अनुशासन के लिए दण्ड देना आवश्यक हैl दण्ड मनुष्य के अन्दर भय उत्पन्न करता हैl
भय उसे गलत कार्यों को करने से रोकता हैl अनुशासन मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक हैl
अनुशासन उसे समयानुरूप कार्य करना सिखाता हैl उसके गुणों का विकास करता हैl
अनुशासन में रहना ज़रा कठिन अवश्य होता हैl जो लोग अनुशासित जीवन जीना पसंद नहीं
करते वह आलसी हो जाते हैं जिस कारण उन्हें भविष्य में तमाम समस्याओं से दो-चार
होना पड़ता हैl इसका सबसे बड़ा उदाहरण सेना हैl वहाँ अनुशासन का बहुत ही कडाई से
पालन किया जाता हैl अनुशासन भंग किये जाने पर दण्ड का भी प्रावधान हैl इस तरह से
सेना का जवान चुस्त व दुरुस्त रहता हैl उसके सामने आम-आदमी अलग सा प्रतीत होता हैl
परन्तु यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि बच्चे सेना के जवानों की भांति शारीरिक व
मानसिक रूप से दृढ़ नहीं होतेl अतः उन्हें अनुशासन में रखने के लिए ऐसे दण्ड दिए
जाएँ जो उनके अनुरूप होंl
शिक्षकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नियम कम से कम हों और केवल ऐसे ही नियम बनाये जाएँ जिनका सहजता से पालन किया जा सकेl नियम तोड़ने वाले विद्यार्थियों को दण्ड देने से कभी किसी का भला नहीं होता, विशेषकर जगब उसके पास नियमों को तोड़ने वाले पर्याप्त कारण होंl उदाहरण के लिए "कक्षा शोरगुल" पर शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक अक्सर नाराजगी दिखाते रहते हैं, लेकिन यह भी संभव है कि शोरगुल कक्षा की जीवन्तता एवं सक्रियता का प्रमाण हो न कि इसका कि शिक्षक कक्षा को नियंत्रित नहीं कर पा रहा हैl इसी प्रकार समयबद्धता को लेकर अक्सर ही कड़ा रुख अपनाया जाता है जो बच्चा ट्रैफिक जाम कि वजह से परिक्षा कक्ष में देरी से पहुंचता है उसे दण्ड नहीं मिलना चाहिएl फिर भी हम ऐसे सख्त नियमों को उच्च स्तरीय मूल्यों के रूप में लागू होते हुए देखते हैं इन मामलों में अनुशासन में दण्ड औचित्यहीन प्रतीत हों एलागता है जो बालक व अविभावकों का मनोबल गिरा देती हैl यदि बालक की बात शांतिपूर्वक सुनी जाए व उसकी समस्या को समझते हुए उचित कदम उठाये जाएँ तो बहुत लाभ हो सकता हैl
मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूँ कि अनुशासन की स्थापना में
एक ओर जहां प्रेम, स्नेह, मार्गदर्शन आदि बहुत महत्व रखता है वहीँ दूसरी और दण्ड
को महत्व को भी नाकारा नहीं जा सकताl प्रारम्भ में किसी भी व्यक्ति अथवा बालक को
पहले नसीहत व मार्गदर्शन देकर उसे सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाये
परन्तु फिर भी यदि वह अपनी त्रुटियों को बार-बार दोहराता है तो व्यक्ति अथवा बालक
को दण्ड देने से पहले पूरे आत्मसंयम के साथ पहले यह सुनिश्चित कर लेना अति आवश्यक
है कि क्या दोषी व्यक्ति अथवा बालक वास्तव में दण्ड का अधिकारी है अथवा नहींl फिर
उस व्यक्ति अथवा बालकके दोष के अनुरूप ही उसे उचित दण्ड दिया जायेl
यही उचित है और अनुशासन में दण्ड का यही औचित्य हैl
यही उचित है और अनुशासन में दण्ड का यही औचित्य हैl