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मेरी कहानी


"गधे! तुम आ रहे हो या नहीं?"
“नहीं।"
"Ok. ठीक 8:30 बजे मेरे घर पहुँच जाना।"
दिलजोत कौर, मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक दोस्त, ने मुझे आदेश दे दिया था। जब भी उसे अपनी कोई बात मनवानी होती है वो ऐसा ही करती है। अब तो जाना ही पड़ेगा, मोहतरमा का हुक्म सर-आँखों पर और रही बात 'गधे' की तो देखो ऐसा है तुम कित्ते भी स्मार्ट हो लेकिन अपने बेस्ट फ्रेंड में नज़र में तुम हूतिये ही होते हो। उसे 'हूतिया' शब्द भद्दा लगता है तो गधा बोलकर काम चला लेती है।
हुक़्म था आज , फ़रवरी 29, 2016 को शाम को हो रहे एक सगाई समारोह में साथ जाने का।
दिलजोत और मैं रात में ठीक 8:45 पर समारोह स्थल पर पहुँच गए और मैंने वहाँ उसे देखा।

बला सी ख़ूबसूरत लग रही थी वो। बाल जैसे किसी ने काली घटाओं को मोड़कर उसके सर पर सजा दिया हो और पूनम के चाँद की बेंदी बना कर सजा दिया मांग में। उसकी आँखें किसी हिरणी के बच्चे की आँखों की तरह सुन्दर, चंचल और गहरी और उनमें काजल की वो तीख़ी धार कि कोई भी हंस कर क़त्ल हो जाये। ध्रुव तारे सी चमकती बिंदी उसके ललाट की शोभा बढ़ा रही थी और उसके कैण्डी रेड होंठ किसी ग़ुलाब की पंखुड़ियों के पर्याय लग रहे थे। उसके कानों के लटकन और गले का हार मानों चमकते हुये पुच्छल तारों की लड़ी से बनाये गए हों। उसके हाथों की खनकती चूड़ियाँ कानों में मधुर संगीत घोल रही थी और हाथों में महकती मेहंदी ने तनवीर ग़ाज़ी साहब की चार लाईनें याद दिला दीं....
"मेरी आँखों में मोहब्बत की चमक आज भी है,
हालाँकि उसे मेरे प्यार पर शक़ आज भी है।
नाव में बैठकर धोये थे उसने हाथ कभी,
सारे तालाब में मेहंदी की महक आज भी है।"
गुलाबी और प्रशियाई नीले रंग के लहंगा-चोली में वो किसी काल्पनिक राज्य की राजकुमारी लग रही थी।

"कहाँ थे तुम अब तक😡? कब से इन्तज़ार कर रही हूँ मैं। अच्छा छोड़ो। बताओ मैं कैसी लग रही हूँ?" - उसने हक़ जताते हुए पूछा।

हाँ, वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है। इस सगाई समारोह में बिन बुलाया मेहमान नहीं हूँ मैं।
दरअसल बात उन दिनों की है जब मैं My College of Education, Madhawgarh में बीएड द्वित्तीय वर्ष का छात्र था।
बीएड..... एक ख़तरनाक डिग्री। यदि आप बीएड कर रहे किसी आम स्टूडेन्ट या बीएड धारी के दिमाग को निचोड़ कर देखें तो आपको पर्याप्त मात्रा में डिप्रेशन और फ्रस्ट्रेशन मिलेगा जो उसे बीमार.... बहुत बीमार बनाने के लिये काफी है।
मैं मेरे भीतर एक सिलेबस जबरदस्ती ठूंसे जा रहा था जिसका प्रयोग सिर्फ इतना था कि जो भी ठूंसा गया है उसकी उल्टियाँ परीक्षा पुस्तिका पर कर देनी थी।
अब तक आप समझ गए होंगे कि बीएड से मुझे उतना ही प्रेम हो चुका था जितना कि औरंगजेब को संगीत से था। एक अजीब सा चिड़चिड़ापन आ चुका था मेरे स्वभाव में। यहाँ तक कि कई बार अध्यापकों से मेरी बहस भी हो गयी। हर पीरियड में टॉयलेट जाना, असेम्बली अटेण्ड न करना या असेंबली में देर से पहुँचना, क्लास में सो जाना आदि मेरी आदतों में शामिल था। कभी-कभी तो फिजिकल एडुकेशन के प्रोफ़ेसर मुझे क्लास में सबसे पीछे बैठने के लिये कह देते थे ताकि उनकी नज़र मुझ पर ना पड़े क्योंकि मुझे जम्हाई लेते देखकर उन्हें भी जम्हाई आने लगती थी।
हाँ, मैं कॉलेज का एक कुख्यात स्टूडेन्ट था। इसके बावजूद भी मुझे कॉलेज में कुछ अच्छे मित्र जैसे अमित, दिलजोत और सुलेखा मिल ही गये। पहले मैं अकेला ही कुख्यात था अब मेरी पूरी गैंग कुख्यात थी। हमारे जूनियर्स को हमसे बात ना करने की सलाह दी जाती थी।
लेकिन फिर भी कॉलेज में भले ही सबने डिग्री कमाई हो लेकिन मैंने दोस्त कमायेे और उनके साथ बिताये गए अच्छे वक़्त की यादें कमाईं।

"अब क्या सोच रहे? बताओ ना कैसी लग रही हूँ?" उसके सवाल ने मुझे चौंका दिया।
"तु...तु... तु... तुम बहुत......"
"गुल्लो! इधर आओ बेटा।" उसकी मम्मी ने बीच में ही टोक दिया और वो "वापस आकर तुम्हारा ओपिनियन लेती हूँ" कहते हुये जल्दबाज़ी में चली गयी।

गुल्लो...... 🤔 अरे नहीं! गुल्लो शायद उसका Pet Name होगा। उसने पहली मुलाक़ात में अपना नाम तो कुछ और ही बताया था। यूँ तो मुझे तारीख़ें और घटनायें कभी याद नहीं रहती हैं और शायद यही वज़ह है कि मुझे इतिहास विषय कभी अच्छा नहीं लगा लेकिन वो अक्टूबर, 26, 2014, बुधवार का दिन मेरे ज़हन में हमेशा ताज़ा रहेगा।
रोज़ की तरह आज भी मैं असेम्बली ख़त्म होने के बाद ही पहुंचा लेकिन आज कॉलेज में माहौल कुछ बदला हुआ था। पूछने पर पता चला कि स्पोर्ट्स डे मनाया जा रहा है सारे शौकिया खिलाड़ी अपने-अपने खेल खेलने में व्यस्त थे। मैं स्पोर्टिव नहीं हूँ इसलिये दर्शक दीर्घा में बैठ कर सो जाना ही उचित समझा।

Excuse me sir!” एक मीठी सी आवाज़ ने मुझे जगा दिया।
मैंने आँख खोली तो देखा एक ख़ूबसूरत सी लड़की मेरे सामने खड़ी थी। इतनी खूबसूरत कि उसकी एक झलक पाकर ही कोई भी उसके प्यार में पड़ जाये।
“Yes.” मैंने जम्हाते हुए कहा।
"सर, मुझे दिलजोत दी ने बताया कि आपके पास प्रीवियस ईयर के exam papers हैं। क्या आप वो मुझे दे सकते है?"
"हाँ बिलकुल।" मैं उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा।
“Thank you.”
"क्या बात है आपने खेल में हिस्सा नहीं लिया?"
“मुझे ये ड्रामा पसंद नहीं।"
“आपको इससे पहले कभी देखा भी नहीं कॉलेज में....?
"मैं कम ही आती हूँ।"
"ह्म्म्म.... वैसे भी ये कॉलेज किसी जेल से कम थोड़े ही हैं।"
"है न! बिलकुल जेल के जैसे ही लगता है यहाँ “ उसने चहक कर कहा लेकिन उसकी आवाज़ में वही फ्रस्ट्रेशन था जो मेरे अंदर था।

“नाम क्या है तुम्हारा?
"वन्दना।"
"वैसे विचार काफी मिलते है हमारे" मैंने हँसते हुये कहा ओर वो भी खिलखिला कर हंस पड़ी।
और इस तरह से हमने काफी देर तक बातें कीं..........

उससे बात करके लगा जैसे कि जूनियर्स में भी हमारी ही तरह कोई आज़ाद परिन्दा घुस आया था। एक ओर जहाँ जूनियर्स हमसे बात करने में भी कतराते थे वहीं उसे हमारी इमेज से घण्टा फ़र्क़ नहीं पड़ता था।
वक़्त गुजरता गया ओर धीरे-धीरे मैं "सर" से "विष्णु सर" और फिर "विष्णु" बन गया और हम "आप" से "तुम" पर आ गए।

"तुमने वन्दना को कभी प्रोपोज़ क्यों नहीं किया?" दिलजोत के सवाल ने मुझे चौंका दिया

" क् क्....क्या! ये क्या पूछ रही हो।" एक बनावटी प्रश्न मैंने बात को टालने के लिये पूछा।

"बनो मत। तुम्हारी आँखों में साफ़ दिखता है कि तुम उसे कितना चाहते हो। फिर तुमने उसे अभी तक कुछ कहा क्यों नहीं?" उसने दबाव बनाते हुये पूछा।

"यार देख! एक तो मैं बेरोज़गार हूँ........"
"मुझे फ़ालतू का जवाब नहीं सुनना असली वज़ह बताओ।" उसने गुस्से में पूछा।

"तो सुनो! हम आज भले ही बहुत अच्छे दोस्त बन चुके हैं लेकिन जूनियर और सीनियर के बीच की लक्ष्मण रेखा आज भी हमारे बीच में है। वो मेरा बहुत सम्मान करती है। अगर मेरे प्रपोजल का जवाब "न" में होता तो मैं ना सिर्फ एक अच्छी दोस्त खो देता बल्कि वो सम्मान भी खो देता और फिर मैं अभी बेरोज़गार......."

अचानक तालियों की गड़गड़ाहट ने मुझे बीच में ही रोक दिया। वन्दना और उसके मंगेतर ने अंगूठियाँ बदल ली थी। फोटो सेशन में वन्दना ने मुझे जगदीश, उसके मंगेतर, से भी introduce कराया। हम लोगों ने साथ में फोटो भी खिंचवाये। रात ग्यारह बजे जगदीश और उसके घरवालों ने बिदाई ली।
"ठीक है वन्दना, अब हम भी चलते है।"
"OK विष्णु। लेकिन......."
"लेकिन मैंने अपना ओपिनियन तुम्हें अभी तक नहीं दिया। बहुत ख़ूबसूरत लग रही हो।" मैंने उसे बीच में रोकते हुए कहा।
"अच्छा! 😋"
"हाँ, सच में। बिलकुल किसी राजकुमारी की तरह। आज तुम्हें देखकर सलीम रज़ा साहब का एक शेर याद आ गया"
"इरशाद, इरशाद" उसने इठलाते हुये कहा।
"हुस्न को चाँद जवानी को कमल कहते हैं,
तेरी सूरत नज़र आये तो ग़ज़ल कहते हैं।
उफ़ संगमरमर सा तराशा तेरा शफ़्फ़ाफ़ बदन,
देखने वाले तुझे ज़िन्दा ताज-महल कहते हैं।।"
"अरे बस, बस....… इतनी तारीफ़ मत करो। बुरी चीजों की लत लग जाती है। ऐसा मैं नहीं कहती बल्कि ऐसा बड़े लोग कहते हैं।"

"तुम स्वयं ही मेरी लत बन चुकी हो। भला मेरी तारीफ की क्या लत लगेगी तुम्हें....!” जी चाहा बोल दूँ लेकिन एक बनावटी सी मुस्कान के साथ रह गया। इससे पहले दिल की बात ज़ुबां पर आती मैंने वहाँ से निकल जाना ही उचित समझा।

सारी भावनाओं को दबाते हुये टूटे हुए दिल का जनाज़ा लेकर मैं वहाँ से चल दिया।

कुमार महोबी

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